गुरु-शिष्य परम्परा
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मित्रों, आज के इस लेख में हम गुरु-शिष्य परम्परा (Guru Shishya Parampara) को विस्तार पूर्वक समझेंगे। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा का क्या स्थान है इस पर चर्चा करेंगे।
“गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वर:,
गुरुर साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः”
सबसे पहले समझते हैं, गुरु की परिभाषा : ‘गु’ शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है।
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है। कहीं गुरु को ‘ब्रह्मा-विष्णु-महेश’ कहा गया है, तो कहीं ‘गोविन्द’। ‘सिख’ शब्द संस्कृत के ‘शिष्य’ से व्युत्पन्न है।
आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है। भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है।
प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल, उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव। शिष्य में होती थी, गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता। “अनुशासन” शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है। क्यों की प्राचीन काल से ही माना गया है की बिना अनुशासन के कोई कार्य संपन्न नहीं हो सकता।
गुरु में होने वाले कुछ गुण:
1. ज्ञान
2. मौलिकता
3. नैतिक बल
4. शिष्यों के प्रति स्नेह भाव
5. निःस्वार्थ भाव
6. सिखाने का भाव
7. मार्गदर्शक
शिष्य में होने वाले कुछ गुण:
1. अनुशासन
2. आज्ञाकारिता
3. गुरु का आदर
4. पूर्ण समर्पण
5. पूर्ण विश्वास
6. सीखने की लालसा
7. गुरु द्वारा दर्शाए मार्ग पर चलने वाला
आचार्य चाणक्य ने एक आदर्श विद्यार्थी के गुण इस प्रकार बताये हैं:
“काकचेष्टा बकुल ध्यानं श्वान निद्रा तथेव च,
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थीनाम पंचलक्षणं”
अर्थात : कौवे जैसी चेष्ठा रखने वाला, बगुले जैसा ध्यान केन्द्रित करने वाला, कुत्ते जैसी सजग निद्रा रखने वाला, कम खाने वाला व् गृह को त्यागने वाला, यह विद्यार्थी के पांच गुण हैं।
प्राचीन काल में, गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था, बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। उसका उद्द्येश्य रहता था कि गुरु उसका कभी अहित सोच भी नहीं सकते। यही विश्वास गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा और समर्पण का कारण रहा है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है, परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है, जिसे ईश्वर -प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।”
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